यार होता है मिरा लाला-अज़ार एक न एक
दाग़ दे जाती है हर साल बहार एक न एक
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दैर ओ हरम ब-चशम-ए-हक़ीक़त नहीं जुदा
पहलू में रह गया यूँ ये दिल तड़प तड़प कर
सौ बार गया मैं उस के दर पर
चली भी जा जरस-ए-ग़ुंचा की सदा पे नसीम
तू ने मुँह फेरा और उस का नूर सा जाता रहा
हर-चंद कि वो जवाँ नहीं हम
उस गली में जो हम को लाए क़दम
ज़ालिम ख़ुदा के वास्ते बैठा तो रह ज़रा
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं
ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हम ने सुनी है 'मीर' ओ 'मिर्ज़ा' की
यूँ है डलक बदन की उस पैरहन की तह में
सीने पे मेरे हर दम रखते हैं हाथ ख़ूबाँ