याँ रख़्ना-हा-ए-सीना कुदूरत से हैं फटे
वाँ हो गए हैं रौज़न-ए-दीवार-ए-यार बंद
Allama Iqbal
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बज़्म-ए-सुरूद-ए-ख़ूबाँ में गो मर्दनगीं शाहीन बजीं
जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ
ज़ालिम ख़ुदा के वास्ते बैठा तो रह ज़रा
मय पीने से वो आरिज़ क्या और हो गए थे
हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए
दर तलक आ के टुक आवाज़ सुना जाओ जी
अब जिस दिल-ए-ख़्वाबीदा की खुलती नहीं आँखें
आता है किस अंदाज़ से टुक नाज़ तो देखो
दाग़-ए-पेशानी-ए-ज़ाहिद न गया जीते-जी
मुझ से जो मेरी ज़ोहरा मिलती नहीं है अब तक
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
या-रब कभी वो दिन हो कि ख़ल्वत में वो सनम