यक क़तरा ख़ूँ बग़ल में है दिल मिरी सो इस को
पलकों से तेरी ख़ातिर क्यूँकर निचोड़ डालूँ
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होता है मुसाफ़िर को दो-राहे में तवक़्क़ुफ़
जब से साने ने बनाया है जहाँ का बहरूप
ले गया काजल चुरा दुज़्द-ए-हिना
रात दिन तू है मिरी आग़ोश में
नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा
हर-चंद बहार ओ बाग़ है ये
जी में है इतने बोसे लीजे कि आज
क्या जानिए चमन में क्या ताज़ा गुल खिला हो
ज़ि-बस हम को निहायत शौक़ है अमरद-परस्ती का
सादगी देख कि बोसे की तमअ रखता हूँ
गुलशन में हवा से जो खुला यार का सीना
ऐश-ए-जहाँ बग़ल में तुम्हारी सब आ रहा