वो आहू-ए-रमीदा मिल जाए तीरा-शब गर
कुत्ता बनूँ शिकारी उस को भंभोड़ डालूँ
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जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया
मेहंदी के धोके मत रह ज़ालिम निगाह कर तू
तीखे तो हो प सच कहो उस वक़्त क्या करो
नसीबों से कोई गर मिल गया है
नक़्शा है उन की चश्म में लैला की चश्म का
बातों ने उस की हम को ख़ामोश कर दिया है
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
इक हाल हो तो यारो उस का बयाँ करें हम
मैं जिन को बात करना ऐ 'मुसहफ़ी' सिखाया
गह तीर मारता है गह संग फेंकता है
मुझ से जो मेरी ज़ोहरा मिलती नहीं है अब तक
बात को मेरी अलग हो के न शरमाओ सुनो