वाँ रसाई ही नहीं मजनून-ए-सहरा-गर्द की
आलम-ए-इम्काँ से भी बाहर मिरा वीराना है
Mohsin Naqvi
Mir Taqi Mir
Rahat Indori
Anwar Masood
Faiz Ahmad Faiz
Wasi Shah
Jaun Eliya
Gulzar
Habib Jalib
Ahmad Faraz
Allama Iqbal
Javed Akhtar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(354) Peoples Rate This
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
बस तू ने अपने मुँह से जो पर्दा उठा दिया
आलम से हमारा कुछ मज़हब ही निराला है
कर्बला है ये गली क्या जो नहीं मिलता याँ
परेशाँ क्यूँ न हो जावे नज़ारा
आसाँ नहीं दरिया-ए-मोहब्बत से गुज़रना
नाज़ुक है दिल-ए-यार बहुत चाहिए मुझ को
जानते आप से जुदा तुझ को
उम्र सय्याद की गुज़री इसी जासूसी में
मसलख़-ए-इश्क़ में खिंचती है ख़ुश-इक़बाल की खाल
ख़्वाब-ए-आराम में सोता था वो गुल क़हर हुआ
मज़े में अब तलक बैठा मैं अपने होंठ चाटूँ हूँ