वाँ लाल फड़कता है अमीरों के क़फ़स में
याँ फ़ाख़्ता हक़-गो है फ़क़ीरों के क़फ़स में
Anwar Masood
Allama Iqbal
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Javed Akhtar
Habib Jalib
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Jaun Eliya
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मग़रिब में उस को जंग है क्या जाने किस के साथ
चश्म-ए-लैला का जो आलम है उन्हों की चश्म में
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की
ज़ुल्मात-ए-शब-ए-हिज्र की आफ़ात है और तू
सौदा है ये किस ज़ुल्फ़ का इस को जो हमेशा
ज़ख़्म-ए-शमशीर-ए-निगह हैफ़ कि अच्छा न हुआ
कभी वफ़ाएँ कभी बेवफ़ाइयाँ देखीं
मंज़िल-ए-मर्ग के आ पहुँचे हैं नज़दीक अब तो
रात दिन तू है मिरी आग़ोश में
आस्तीं उस ने जो कुहनी तक चढ़ाई वक़्त-ए-सुब्ह
न वो वादा-ए-सर-ए-राह है न वो दोस्ती न निबाह है
पीछे फिर फिर देखता जाता हूँ और भागूँ हूँ मैं