वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
और तुम जा के हुए शीर-ओ-शकर और कहीं
Anwar Masood
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Gulzar
Habib Jalib
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Rahat Indori
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Faiz Ahmad Faiz
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Parveen Shakir
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ले लिया प्यार से अक्स अपने का झुक कर बोसा
शैख़ काबे को तू जा जाऊँ मैं बुत-ख़ाने को
मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और राग के
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
हरगिज़ न मुझ से साफ़ हुआ यार या नसीब
जो दम हुक़्क़े का दूँ बोले कि ''मैं हुक़्क़ा नहीं पीता''
सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को
अपना रफ़ीक़-ओ-आश्ना ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं
जो परी भी रू-ब-रू हो तो परी को मैं न देखूँ
जीता रहूँ कि हिज्र में मर जाऊँ क्या करूँ
जी में है इतने बोसे लीजे कि आज
गो भूल गया हूँ मैं तुझे तो भी तिरा रंग