उट्ठा गया फ़लक पे गिरा ख़ाक में मिला
आख़िर हुई ये शक्ल हमारे ग़ुबार की
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काम क्या है प नहीं चाहती हिम्मत हरगिज़
अश्क से मेरे बचे हम-साया क्यूँ-कर घर समेत
ऐ काश कोई शम्अ के ले जा के मुझे पास
रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
उस की पड़ी न आँख ख़त-ओ-ख़ाल पर तिरे
दिल सीने में बेताब है दिलदार किधर है
तुझ से गर वो दिला नहीं मिलता
कह दो मजनूँ से करे अपनी सवारी तय्यार
देखें तो क्यूँकर वो काफ़िर दर तक अपने न आवेगा
हम भी हैं तिरे हुस्न के हैरान इधर देख
लहरों का थरथराना क्यूँ-कर पसंद आवे
हर चंद अमरदों में है इक राह का मज़ा