उस्तुख़्वाँ-बंदी-ए-अल्फ़ाज़ का आलम तू देख
अहल-ए-मअ'नी की जुदा होवे है तक़रीर का डोल
Allama Iqbal
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रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही
बहुत दिलों को सताया है तू ने ऐ ज़ालिम
गर जोश पे टुक आया दरियाव तबीअत का
चश्म-ए-लैला का जो आलम है उन्हों की चश्म में
है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
कह गया कुछ तो ज़ेर-ए-लब कोई
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
मुल्हिद हूँ अगर मैं तो भला इस से तुम्हें क्या
मिस्र को छोड़ के आई है जो हिंदुस्ताँ में
उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने
मैं पहरों घर में पड़ा दिल से बात करता हूँ
मुहताज-ए-ज़ेब-ए-आरियती कब है ज़ात-ए-बह्त