उस की पड़ी न आँख ख़त-ओ-ख़ाल पर तिरे
कब्क-ए-दरी तो रफ़्ता-ए-रफ़्तार ही रहा
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जो शम्अ है काबे की वही नूर का शोअ'ला
इक दर्द-ए-मोहब्बत है कि जाता नहीं वर्ना
ख़रीदार अपना हम को जानते हो
इस नाज़नीं की बातें क्या प्यारी प्यारियाँ हैं
ख़ाक-ए-आग़श्ता-ब-ख़ूँ को मिरी बे-क़द्र न जान
अव्वल-ए-उम्र में देखा उसे जिस ने ये कहा
बैठा था आ के क़ैस तो लैला के दर पे लेक
आग़ोश की हसरत को बस दिल ही में मारुँगा
तख़्ता-ए-आब-ए-चमन क्यूँ न नज़र आवे सपाट
ये रोज़ ढूँढ लाए है इक ख़ूब-रू नया
अब ख़ुदा मग़फ़िरत करे उस की
दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़