उस के मक़्तल में मिरा ख़ून बटा दस्त-ब-दस्त
ख़ूब-रू जैसे लगाते हैं हिना दस्त-ब-दस्त
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मैं तेरे डर से न देखा उधर बहुत शब-ए-वस्ल
अश्क से मेरे बचे हम-साया क्यूँ-कर घर समेत
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
बातें कई ज़बानी मैं ने कही हैं उस से
ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
पर्दा-ए-गोश-ए-असीराँ न हुई इक शब-ए-गर्म
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
किसी जंगल के गुल-बूटे से जी मेरा बहल जाता
जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया
मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन
गली में उस की हुई हल्क़ याँ तक आसूदा