उस के लहराने में चाल आई न मुतलक़ साँप की
मौज-ए-दरिया करती है तक़लीद नाहक़ साँप की
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इस गुलशन-ए-पुर-ख़ार से मानिंद-ए-सबा भाग
मु-ए-जुज़ 'मीर' जो थे फ़न के उस्ताद
मुझ को पामाल कर गया है वही
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
जीता रहूँ कि हिज्र में मर जाऊँ क्या करूँ
नफ़ी ओ इसबात का हंगामा रहा उस कू मैं
हरगिज़ किया न बाद-ए-ख़िज़ाँ का भी इंतिज़ार
अगरचे दिल तो हमें तुम से कुछ अज़ीज़ नहीं
दिल ले गया है मेरा वो सीम-तन चुरा कर
अदम वालों की सोहबत से भी नफ़रत हो गई अब तो
काम क्या है प नहीं चाहती हिम्मत हरगिज़
काबा ओ दैर में ढूँडे जो कहीं ले के चराग़