उस के कूचे में सदा मुझ को नज़र आता है
बस्ता-ए-ज़ुल्फ़ कोई रफ़्ता-ए-रफ़्तार कोई
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'मुसहफ़ी' शिर्क भी ऐसे का नहीं यार बुरा
ज़ख़्म-ए-शमशीर-ए-निगह हैफ़ कि अच्छा न हुआ
'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
ऐ 'मुसहफ़ी' उस्ताद-ए-फ़न-ए-रेख़्ता-गोई
न समझो तुम कि मैं दीवाना वीराने में रहता हूँ
कूचा-ए-यार में रहने से नहीं और हुसूल
बाज़ार से गुज़रे है वो बे-पर्दा कि उस को
मैं तेरे डर से न देखा उधर बहुत शब-ए-वस्ल
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
शहर में मुझ से भड़कता था तसव्वुर तेरा
बज़्म-ए-सुरूद-ए-ख़ूबाँ में गो मर्दनगीं शाहीन बजीं
कुछ अपनी जो हुर्मत तुझे मंज़ूर हो ऐ शैख़