उस के दर पर मैं गया साँग बनाए तो कहा
चल बे चल दूर हो क्या ले के फ़क़ीरी आया
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मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
शायद कि किसी और से था वस्ल का वादा
हल्क़ा-ए-ज़ंजीर से निकला न ये पा-ए-जुनूँ
तन्हा न वो हाथों की हिना ले गई दिल को
आए हो तो ये हिजाब क्या है
तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
है तमन्ना-ए-सैर-ए-बाग़ किसे
समझ ले आशिक़ ओ माशूक़ की हम-आग़ोशी
अव्वल-ए-उम्र में देखा उसे जिस ने ये कहा
बाग़ था उस में आशियाँ भी था
मुझ को पामाल कर गया है वही
हम न शाना न सबा हैं नहीं खुलता है ये भेद