उश्शाक़ का कुछ मैं ने आलम ही नया देखा
इक आन में जी उट्ठें इक आन में मर जावें
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घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
क़िस्सा-ए-मजनूँ पसंद-ए-ख़ातिर जानाना है
मेरे और यार के पर्दा तो नहीं कुछ लेकिन
अपना तो तूल-ए-उम्र से घबरा गया है जी
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
मेरे दिल-ए-शिकस्ता को कहती है देख ख़ल्क़
ज़ुल्फ़ों का बिखरना इक तो बला, आरिज़ की झलक फिर वैसी ही
होता है मुसाफ़िर को दो-राहे में तवक़्क़ुफ़
मुझ से जो मेरी ज़ोहरा मिलती नहीं है अब तक
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं
मुँह में जिस के तू शब-ए-वस्ल ज़बाँ देता है
कर के ज़ख़्मी तू मुझे सौंप गया ग़ैरों को