उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने
खींची है दरमियाँ में दीवार ज़िंदगी से
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मोहब्बत ने किया क्या न आनें निकालीं
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम
तीखे तो हो प सच कहो उस वक़्त क्या करो
गर ज़माने की अदावत है यही मुझ से तो मैं
ख़्वाहिश-ए-वस्ल का मज़मूँ जो किसी सत्र में था
शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी
हरगिज़ न मुझ से साफ़ हुआ यार या नसीब
अज़-बस-कि जी है तुझ बिन बेज़ार ज़िंदगी से
वहशत है मेरे दिल को तो तदबीर-ए-वस्ल कर
ऐ फ़लक किस ने कहा था तुझे ये तो बतला
जी में है इतने बोसे लीजे कि आज