उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
इतना तो बता दो दर-ए-गुलज़ार किधर है
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दैर ओ हरम ब-चशम-ए-हक़ीक़त नहीं जुदा
टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
गरचे ऐ दिल आशिक़-ए-शैदा है तू
'मुसहफ़ी' फ़ारसी को ताक़ पे रख
अब जिस दिल-ए-ख़्वाबीदा की खुलती नहीं आँखें
सहराइयान-ए-पूरब क्या जानते हैं इस को
ख़्वाब-ए-आराम में सोता था वो गुल क़हर हुआ
मु-ए-जुज़ 'मीर' जो थे फ़न के उस्ताद
न आया शाम भी घर फिर के अपने
किस की ख़ातिर को मुक़द्दम रख्खूँ मैं हैरान हूँ
लेखे की याँ बही न ज़र-ओ-माल की किताब