तुम्हारे सामने क्या 'मुसहफ़ी' पढ़े अशआर
भले बुरे की तो अब तक तुम्हें तमीज़ नहीं
Javed Akhtar
Gulzar
Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
Faiz Ahmad Faiz
Parveen Shakir
Rahat Indori
Mir Taqi Mir
Wasi Shah
Habib Jalib
Ahmad Faraz
Anwar Masood
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(343) Peoples Rate This
मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
बस-कि तेज़ाब से कुछ कम भी न था वो दम-ए-क़त्ल
बचा गर नाज़ से तो उस को फिर अंदाज़ से मारा
दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
'मुसहफ़ी' होता मुसलमान जो मुझ सा काफ़िर
झुर्रियाँ क्यूँ न पड़ें उम्र-ए-फ़ुज़ूँ में मुँह पर
रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
ख़ाक-ए-बदन तिरी सब पामाल होगी इक दिन
लुट के मंज़िल से कोई यूँ तो न आया होगा
किस राह गया लैला का महमिल नहीं मालूम