तुम्हारे हाथ को छोड़ूँ हूँ मैं कोई साहिब
लगे हो आज बड़ी मेहनतों से बारे हाथ
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मैं जो कुछ हूँ सो हूँ क्या काम है इन बातों से
इक हाल हो तो यारो उस का बयाँ करें हम
ईद अब के भी गई यूँही किसी ने न कहा
माशूक़ा-ए-गुल नक़ाब में है
जिस बयाबान-ए-ख़तरनाक में अपना है गुज़र
ग़ैर के घर तू न रह रात को मेहमान कहीं
मुझ को पामाल कर गया है वही
हरगिज़ किया न बाद-ए-ख़िज़ाँ का भी इंतिज़ार
सहव और सुक्र में रहते हैं तभी तो फ़ुक़रा
दिल ले गया है मेरा वो सीम-तन चुरा कर
मुँह में जिस के तू शब-ए-वस्ल ज़बाँ देता है
क़िस्सा-ख़्वाँ बैठे हैं घेरे उस के तईं