तुझ को ऐ सय्याद काविश ही अगर मंज़ूर है
तू चमन में छोड़ दे मुझ को मिरे पर तोड़ कर
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काम में अपने ज़ुहूर-ए-हक़ है आप
तौबा तो की है इश्क़ से पर इस का क्या इलाज
चली भी जा जरस-ए-ग़ुंचा की सदा पे नसीम
मैं उन मुसाफ़िरों में हूँ इस चश्म-ए-तर के हाथ
तो माइल-ए-उश्शाक़-कुशी है तो यहाँ भी
कब सबा सू-ए-असीरान-ए-क़फ़स आती है
दरिया-ए-आशिक़ी में जो थे घाट घाट साँप
आदमी से आदमी की जब न हाजत हो रवा
न वो वादा-ए-सर-ए-राह है न वो दोस्ती न निबाह है
कैसी फ़रफ़र ज़बान चलती है
कौन कहता है कि फिर ख़ाक से उठते हैं शहीद
पीछे फिर फिर देखता जाता हूँ और भागूँ हूँ मैं