तू जो जाता है वहीं नित दौड़ दौड़ ऐ 'मुसहफ़ी'
और क्या दुनिया के सारे ख़ूबसूरत मर गए
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दो तीन दम-ए-सर्द भरे हैं तो वो बोले
मर्ग की देखते ही शक्ल गए भाग हवास
रखता है क़दम नाज़ से जिस दम तू ज़मीं पर
ना-तवानी के सबब याँ किस से उट्ठा जाए है
सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को
हर-चंद बहार ओ बाग़ है ये
जिस कू मैं हो गुज़ार-ए-परी-तलअतान-हिन्द
देखें तो क्यूँकर वो काफ़िर दर तक अपने न आवेगा
मेहंदी के धोके मत रह ज़ालिम निगाह कर तू
ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का
क्यूँ शेर-ओ-शायरी को बुरा जानूँ 'मुसहफ़ी'
मेरे दिल-ए-शिकस्ता को कहती है देख ख़ल्क़