तू छोड़ अब तो असीर-ए-क़फ़स को ऐ सय्याद
कली चटकने लगी मौसम-ए-गुलाब आया
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हूँ शैख़ मुसहफ़ी का मैं हैरान-ए-शाएरी
इक जाम-ए-मय की ख़ातिर पलकों से ये मुसाफ़िर
किस वक़्त जुदा मुझ से वो कम्बख़्त हुई थी
इक हर्फ़-ए-कुन में जिस ने कौन-ओ-मकाँ बनाया
मैं ने कहा था उस से अहवाल-ए-गिरिया अपना
कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए
आतिश-ए-ग़म में बस कि जलते हैं
जो तू ऐ 'मुसहफ़ी' रातों को इस शिद्दत से रोवेगा
मंज़िल-ए-मर्ग के आ पहुँचे हैं नज़दीक अब तो
अज़-बस-कि तू प्यारा है मुझे तेरे सिवा यार
ख़्वारियाँ बदनामियाँ रुस्वाइयाँ