तो माइल-ए-उश्शाक़-कुशी है तो यहाँ भी
जीने की तमअ ऐ बुत-ए-मग़रूर किसे है
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वो दर तलक आवे न कभी बात की ठहरे
कहते हो एक-आध की है मेरे हाथों मौत
कुछ शेर-ओ-शायरी से नहीं मुझ को फ़ाएदा
इस रंग से अपने घर न जाना
पलकें नहीं छोड़तीं कि इक दम
क्यूँकर न तुझे दौड़ के छाती से लगा लूँ
भूल जावे साहिब-ए-इक़बाल अपनी सर-कशी
मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
नसीम-ए-सुब्ह-ए-चमन से इधर नहीं आती
रात के रहने का न डर कीजिए
इक दिन तो लिपट जाए तसव्वुर ही से तेरे
तरह ओले की जो ख़िल्क़त में हम आबी होते