तीखे तो हो प सच कहो उस वक़्त क्या करो
तुम को गले लगा ले अगर प्यार से कोई
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नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
मैं तो जाता हूँ तरफ़ काबे के पर काफ़िर ये पाँव
छेड़ मत हर दम न आईना दिखा
वाँ लाल फड़कता है अमीरों के क़फ़स में
है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी
ये कब ख़याल में लाते हैं ताज-ए-शाही को
नक़्शा है उन की चश्म में लैला की चश्म का
कुफ़्र फैला है यहाँ तक कि ज़माने में कोई
अपना रफ़ीक़-ओ-आश्ना ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं
सुल्ह-ए-कुल में मिरी गुज़रे है मोहब्बत के बीच
शहवत उन से कौन सी सादिर हुई जो 'मुसहफ़ी'
ठठ की ठठ इतनी चली आती है ये काहे को