ठठ की ठठ इतनी चली आती है ये काहे को
लोग इतने तिरी मज्लिस में समा सकते हैं
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
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Gulzar
Mir Taqi Mir
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Wasi Shah
Anwar Masood
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शब हम को जो उस की धुन रही है
काँटा हुआ हूँ सूख के याँ तक कि अब सुनार
ने हाथ मिरा हाथ है ने जेब मिरी जेब
मुश्ताक़ ही दिल बरसों उस ग़ुंचा-दहन का था
न समझो तुम कि मैं दीवाना वीराने में रहता हूँ
दस्त-ए-शिकस्ता अपना न पहुँचा कभी दरेग़
मेहंदी के धोके मत रह ज़ालिम निगाह कर तू
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
आग़ोश की हसरत को बस दिल ही में मारुँगा
सज्दा-गाह अपनी किए राह के रोड़े पत्थर
जितना कि ये दुनिया में हमें ख़्वार रखे है
गर ज़माने की अदावत है यही मुझ से तो मैं