तेरी क़सम है अपना तो रुक जाए जी वहीं
यक दम जो दरमियाँ में तिरी गुफ़्तुगू न हो
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हम से वो बे-सबब उलझती है
कहते हो एक-आध की है मेरे हाथों मौत
मुख-फाट मुँह पे खाएँगे तलवार हो सो हो
दूकान-ए-मय-फ़रोश पे गर आए मोहतसिब
ख़्वाहिश-ए-वस्ल का मज़मूँ जो किसी सत्र में था
जागा है रात प्यारे तू किस के घर जो तेरी
हाथों से उस के शीशा-ए-दिल चूर है मिरा
तन तो कहाँ है शोला-ए-फ़ानूस की तरह
कर के सदक़े रख दिया दिल यूँ मैं उस की राह में
सहराइयान-ए-पूरब क्या जानते हैं इस को
वारफ़्ता हूँ ऐसा में कि कूचे में बुताँ के
मुल्हिद हूँ अगर मैं तो भला इस से तुम्हें क्या