तेरी ही ज़ात से तो है वाबस्ता ये तिलिस्म
हम होवें फिर कहाँ के अगर हम में तू न हो
Parveen Shakir
Jaun Eliya
Gulzar
Anwar Masood
Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
Wasi Shah
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(254) Peoples Rate This
मंज़िल-ए-मर्ग के आ पहुँचे हैं नज़दीक अब तो
सोच दिन रात यही है तिरे दीवाने की
जो मुझ आतिश-नफ़्स ने मुँह लगाया उस को ऐ साक़ी
वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ
चमन को आग लगावे है बाग़बाँ हर रोज़
उस बुत को नहीं है डर ख़ुदा से
आज ख़ूँ हो के टपक पड़ने के नज़दीक है दिल
ब'अद-ए-मुर्दन की भी तदबीर किए जाता हूँ
जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ
दारुश्शफ़ा-ए-इश्क़ में ले जा के हम को इश्क़
लेने लगे जो चुटकी यक-बार बैठे बैठे
यूँ है डलक बदन की उस पैरहन की तह में