तेरे कूचे से सफ़र मैं ने किया था जिस दिन
थे मिरे साथ मिरे दीदा-ए-ख़ूँ-बार और बस
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हम तो उस कूचे में घबरा के चले आते हैं
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
काम क्या है प नहीं चाहती हिम्मत हरगिज़
जब मैं ने कहा आँखें छुपा खोल दिया मुँह
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा
गर मज़ा चाहो तो कतरो दिल सरौते से मिरा
मुफ़्लिस के दिए की सी तिरा दाग़-ए-दिल अपना
हम भी ऐ जान-ए-मन इतने तो नहीं नाकारा
मजनूँ कहानी अपनी सुनावे अगर मुझे
जो दम हुक़्क़े का दूँ बोले कि ''मैं हुक़्क़ा नहीं पीता''
काबा ओ दैर में ढूँडे जो कहीं ले के चराग़
हम-सफ़ीरों से सबा कहियो कि तुम में भी कभी