तौबा तो की है इश्क़ से पर इस का क्या इलाज
बे-क़स्द दिल किसी को अगर चाहने लगे
Mohsin Naqvi
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Mir Taqi Mir
Gulzar
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Habib Jalib
Rahat Indori
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सैराब आब-ए-जू से क़दह और क़दह से हम
नसीबों से कोई गर मिल गया है
शब मगर रह गई थोड़ी जो नज़र आता है
जी से मुझे चाह है किसी की
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की
जब तक ये मोहब्बत में बदनाम नहीं होता
कहीं देखा है इस हैअत का माशूक़
माह की आँख जो रहती है लगी ऊधर ही
उस के दहान-ए-तंग में जा-ए-सुख़न नहीं
सादिक़ से बस इक आन में हो जावे तू काज़िब
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है
आई जो रूह-ए-लैला ज़ियारत को क़ैस की