तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े
सोना उतार ले वरक़-ए-आफ़्ताब से
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ऐ 'मुसहफ़ी' उस्ताद-ए-फ़न-ए-रेख़्ता-गोई
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
जिस को कहते हैं अरसा-ए-हस्ती
जंगल में टेसू फूला और बाग़ में शगूफ़ा
तुझ से गर वो दिला नहीं मिलता
ज़ीं-साज़ी अगर आती मुझे मैं तो मिरी जाँ
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
शब हम को जो उस की धुन रही है
उस के लहराने में चाल आई न मुतलक़ साँप की
गर रहूँ शहर में हो दूद के बाइस ख़फ़क़ाँ
गुलशन में हवा से जो खुला यार का सीना
है ईद का दिन आज तो लग जाओ गले से