तरफ़ा आलम है हमारा भी कि हर दम उस से
आफी हम मनते हैं और आफी ख़फ़ा होते हैं
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उस ने कर वसमा जो फ़ुंदुक़ पे जमाई मेहंदी
आज पलकों को जाते हैं आँसू
अव्वल तो थोड़ी थोड़ी चाहत थी दरमियाँ में
रक्खा है ठौर मुझ को कहरवे के नाच ने
चीन-ए-पेशानी न दिखलाओ मैं हूँ नाज़ुक-मिज़ाज
चखी न जिस ने कभी लज़्ज़त-ए-सिनान-ए-निगाह
क्या रेख़्ता कम है 'मुसहफ़ी' का
मजनूँ कहानी अपनी सुनावे अगर मुझे
क्या क्या बदन-ए-साफ़ नज़र आते हैं हम को
एक नाले पे है मआश अपनी
उस्तुख़्वाँ-बंदी-ए-अल्फ़ाज़ का आलम तू देख
आप हर दम जो ये कहते हैं कि तू क्यूँ है खड़ा