तन्हा न वो हाथों की हिना ले गई दिल को
मुखड़े के छुपाने की अदा ले गई दिल को
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दाग़-ए-पेशानी-ए-ज़ाहिद न गया जीते-जी
दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
हरगिज़ रहा न काफ़िर ओ मोमिन से उस को काम
किस की ख़ातिर को मुक़द्दम रख्खूँ मैं हैरान हूँ
पाया-ए-तख़्त-ए-सुलैमाँ का है शाएर 'मुसहफ़ी'
ऐ 'मुसहफ़ी' शायर नहीं पूरब में हुआ मैं
हूँ मुशव्वश मुझे इस दम न लगा हाथ सबा
रेख़्ता-गोई की बुनियाद 'वली' ने डाली
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
दर तलक आ के टुक आवाज़ सुना जाओ जी
मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी