तन तो कहाँ है शोला-ए-फ़ानूस की तरह
इक आग सी भरी है मिरे पैरहन के बीच
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ढे जाने का कुछ घर के मुझे ग़म नहीं इतना
मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी
सिधारी क़ुव्वत-ए-दिल ताब और ताक़त से कह दीजो
शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र
रखें हैं जी में मगर मुझ से बद-गुमानी आप
पहलू में रह गया यूँ ये दिल तड़प तड़प कर
चमन को आग लगावे है बाग़बाँ हर रोज़
ख़्वाब था या ख़याल था क्या था
ऐ ग़म-ज़दा ज़ब्त कर के चलना
मंसूर ने न ज़ुल्फ़ के कूचे की राह ली
बहस उस की मेरी वक़्त-ए-मुलाक़ात बढ़ गई
दिल को ये इज़्तिरार कैसा है