तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की
ख़ुद सीना तिरे दाग़ों से गुलशन है हमारा
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सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल
तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल
दौलत-ए-फ़क़्र-ओ-फ़ना से हैं तवंगर हम लोग
नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा
गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
अब शीशा-ए-साअत की तरह ख़ुश्की के बाइस
ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
ग़म तिरा दिल में मिरे फिर आग सुलगाने लगा
लहरों का थरथराना क्यूँ-कर पसंद आवे
रक्खा है ठौर मुझ को कहरवे के नाच ने
शहर में मुझ से भड़कता था तसव्वुर तेरा