तड़ावे के लिए है ख़्वान पोश महर-ओ-मह नादाँ
फ़रेब-ए-चर्ख़ मत खाना कहीं, ये ख़्वान ख़ाली है
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तेरी ही ज़ात से तो है वाबस्ता ये तिलिस्म
दौलत-ए-फ़क़्र-ओ-फ़ना से हैं तवंगर हम लोग
पर्दा उठा के मेहर को रुख़ की झलक दिखा कि यूँ
बज़्म-ए-सुरूद-ए-ख़ूबाँ में गो मर्दनगीं शाहीन बजीं
दाग़-ए-पेशानी-ए-ज़ाहिद न गया जीते-जी
सादगी देख कि बोसे की तमअ रखता हूँ
चाहता हूँ उस को मैं वो चाहता मुझ को नहीं
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
किधर जाइए और कहाँ बैठिए
शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ
तिरे मुँह छुपाते ही फिर मुझे ख़बर अपनी कुछ न ज़री रही
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है