सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल
नहीं हिलता ये अजब दर रह-ए-दीं पत्थर है
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गोया गिरह बहाने की एक उस पे थी लगी
आदमी को ग़फ़लत-ए-दुनिया नहीं देती नजात
चाक करता है अभी जामा-ए-उर्यानी को
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
वाँ रसाई ही नहीं मजनून-ए-सहरा-गर्द की
कुछ तो मिलता है मज़ा सा शब-ए-तन्हाई में
बंद भी आँखों को ज़री कीजिए
दिल उलझता रहा ता-सुब्ह हमारा शब को
पीछा किसी तरह ये मिरा छोड़ता नहीं
तिरा शौक़-ए-दीदार पैदा हुआ है
छुरियाँ चलीं शब दिल ओ जिगर पर
जल्वा-गर उस का सरापा है बदन आइने में