सुम्बुल को परेशान किया बाद-ए-सबा ने
जब बाग़ में बातें तिरी ज़ुल्फ़ों की चलाईं
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ख़ुदा की क़सम फिर तो क्या ख़ैर होवे
सल्तनत और ही माने रखती है
बंद भी आँखों को ज़री कीजिए
जमुना में कल नहा कर जब उस ने बाल बाँधे
पस-ए-क़ाफ़िला जो ग़ुबार था कोई उस में नाक़ा-सवार था
अगरचे दिल तो हमें तुम से कुछ अज़ीज़ नहीं
ऐश-ए-जहाँ बग़ल में तुम्हारी सब आ रहा
हम ने भेजा तो है उस गुल को ज़बानी पैग़ाम
सादिक़ से बस इक आन में हो जावे तू काज़िब
चराग़-ए-हुस्न-ए-यूसुफ़ जब हो रौशन
ऐसी आज़ुर्दगी क्या थी हमें इस कूचे से
गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ