सुल्ह-ए-कुल में मिरी गुज़रे है मोहब्बत के बीच
न तो तकरार है काफ़िर से न दीं-दार से बहस
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दिल डूब गया टूट गया सब्र का लंगर
वो दर तलक आवे न कभी बात की ठहरे
ऐ 'मुसहफ़ी' अब चखियो मज़ा ज़ोहद का तुम ने
शब-ए-हिज्राँ क्या सियाही न हुई रोज़-ए-सफ़ेद
किश्वर-ए-दिल अब मकान-ए-दर्द-ओ-दाग़-ओ-यास है
हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार
दिल-ए-मायूस को पहने हुए आती हैं नज़र
शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ
उस के लहराने में चाल आई न मुतलक़ साँप की
उम्र-ए-पस-माँदा कुछ दलील सी है
देख कर इक जल्वे को तेरे गिर ही पड़ा बे-ख़ुद हो मूसा
लेने लगे जो चुटकी यक-बार बैठे बैठे