सूख कर रह गया है काग़ज़ वार
मरज़-ए-रिश्ता है जो मिस्तर को
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इक जाम-ए-मय की ख़ातिर पलकों से ये मुसाफ़िर
यूँ चलते हैं लोग राह ज़ालिम
ख़्वाब का दरवाज़ा कुइ मसदूद कर देता है रोज़
एक नाले पे है मआश अपनी
बस तू ने अपने मुँह से जो पर्दा उठा दिया
तू खुले बालों मिरे सामने आया मत कर
न प्यारे ऊपर ऊपर माल हर सुब्ह-ओ-मसा चक्खो
मैं वो गर्दन-ज़दनी हूँ कि तमाशे को मिरे
माइल-ए-गिर्या मैं याँ तक हूँ कि आज़ा पे मिरे
मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
जब से साने ने बनाया है जहाँ का बहरूप
लोग कहते हैं मोहब्बत में असर होता है