सोच दिन रात यही है तिरे दीवाने की
जाइए शहर को पर छोड़िए सहरा क्यूँकर
Wasi Shah
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गर ये आँसू हैं तो लाख आवेंगे दरिया जोश में
तो माइल-ए-उश्शाक़-कुशी है तो यहाँ भी
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
चेहरे पे एक के भी न पाया वफ़ा का रंग
दिल चुराना ये काम है तेरा
खा लेते हैं ग़ुस्से में तलवार कटारी क्या
नाज़ुक है दिल-ए-यार बहुत चाहिए मुझ को
इस वास्ते फ़ुर्क़त में जीता मुझे रक्खा है
ख़्वाब-ए-आराम में सोता था वो गुल क़हर हुआ
ऐ ग़म-ज़दा ज़ब्त कर के चलना
मग़रिब में उस को जंग है क्या जाने किस के साथ
'मुसहफ़ी' गरचे ये सब कहते हैं हम से बेहतर