शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ
तिफ़्ल-ए-नादाँ हूँ मैं बिजली से दहल जाता हूँ
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हैं यादगार-ए-आलम-ए-फ़ानी ये दिनों चीज़
मियाँ सब्र-आज़माई हो चुकी बस
बातों में लगाए ही मुझे रखता है ज़ालिम
शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी
तूर पर अपने किसी दिन भी ख़ुर-ओ-ख़्वाब है याँ
क़िस्सा-ख़्वाँ बैठे हैं घेरे उस के तईं
अपना रफ़ीक़-ओ-आश्ना ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं
आतिश-ए-ग़म में बस कि जलते हैं
कहूँ तो किस से कहूँ अपना दर्द-ए-दिल मैं ग़रीब
जो शैख़-ए-शहर आया हम से औबाशों की मज्लिस में
साबित तू रह जफ़ा पे मैं क़ाएम वफ़ा पे हूँ
शब-ए-हिज्राँ थी मैं था और तन्हाई का आलम था