शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी
छेड़ मत हम को भरे बैठे हैं
Habib Jalib
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Mir Taqi Mir
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बाग़बाँ काटियो मत मौसम-ए-गुल में उस को
तुम्हारे हाथ को छोड़ूँ हूँ मैं कोई साहिब
दर्द-ओ-ग़म को भी है नसीबा शर्त
क़लक़-ए-दिल से हैं जैसे मिरे रुख़्सारे ज़र्द
बैठा था आ के क़ैस तो लैला के दर पे लेक
इतना गया हूँ दूर मैं ख़ुद से कि दम-ब-दम
सौ बार गया मैं उस के दर पर
फिर ये कैसा उधेड़-बुन सा लगा
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
तू मेरे सामने बैठा है आह तिस पर भी
लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन