शिफ़ा नसीब मिरे क्यूँ के हो कि ऐ यारो
रहीम दिल है तबीब और मैं हूँ बद-परहेज़
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वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
आज की शब गर रहेंगे 'मुसहफ़ी' बैरून-ए-दर
ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हम ने सुनी है 'मीर' ओ 'मिर्ज़ा' की
उस्ताद कोई ज़ोर मिला क़ैस को शायद
आलम को इक हलाक किया उस ने 'मुसहफ़ी'
जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया
हम 'मुसहफ़ी' ब-कुफ़्र तो मशहूर हो चुके
दिल और सियह हो गए माह-ए-रमज़ाँ में
नित जिन आँखों में रहे था तेरी सूरत का ख़याल
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं
कर्बला है ये गली क्या जो नहीं मिलता याँ
बातें कई ज़बानी मैं ने कही हैं उस से