शायद कि किसी और से था वस्ल का वादा
मालूम हुआ ये तिरी बे-ज़ारी-ए-शब से
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और सरगर्म किया तेरी कशिश ने मुझ को
ज़ेर-ए-नक़ाब आब-गूँ हाए-रे उन की जालियाँ
मय पीने से वो आरिज़ क्या और हो गए थे
किस के मजरूह गुलिस्ताँ में हैं मदफ़ूँ जो हनूज़
दिल्ली पे रोना आता है करता हूँ जब निगाह
ख़ूब-रूयों की मोहब्बत से करें क्यूँ तौबा
तुझ को ऐ सय्याद काविश ही अगर मंज़ूर है
गर अब्र घिरा हुआ खड़ा है
हर दम आते हैं भरे दीदा-ए-गिर्यां तुझ बिन
हाथ दोनों कफ़-ए-अफ़्सोस की सूरत लिक्खे
'मुसहफ़ी' कुछ कम नसारा से नहीं
यूँ चलते हैं लोग राह ज़ालिम