शैख़-उल-हरम मोअज़्ज़िन दोनों चलन के बद हैं
ये सुब्ह-ख़ेज़िया तो वो है अठाई-गीरा
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दिल के आईने की हम लेते हैं तब है है ख़बर
दिल में है उस के मुद्दई का इश्क़
कब लग सके जफ़ा को उस की वफ़ा-ए-आलम
कहती है नमाज़-ए-सुब्ह की बाँग
है तिरी कू में ख़बर हश्र के हंगामे की
ज़ुल्फ़ अगर दिल को फँसा रखती है
कभी वफ़ाएँ कभी बेवफ़ाइयाँ देखीं
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं
'मुसहफ़ी' हर घड़ी जाया न करो तुम साहिब
अपना तो तूल-ए-उम्र से घबरा गया है जी
बे-लाग हैं हम हम को रुकावट नहीं आती
ज़ुल्मात-ए-शब-ए-हिज्र की आफ़ात है और तू