शैख़ मग़रूर है इस्लाम पे क्या साथ अपने
तेरी तस्बीह तो ज़ुन्नार लिए फिरती है
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ऐश-ए-जहाँ बग़ल में तुम्हारी सब आ रहा
अक्स से अपने अगर राह नहीं तुम को तो जान
मु-ए-जुज़ 'मीर' जो थे फ़न के उस्ताद
ले चली है जो दिल तो ज़ुल्फ़-ए-दराज़
ख़रीदार अपना हम को जानते हो
हर-चंद बहार ओ बाग़ है ये
ज़ेर-ए-नक़ाब आब-गूँ हाए-रे उन की जालियाँ
उन को भी तिरे इश्क़ ने बे-पर्दा फिराया
कल क़ाफ़िला-ए-निक्हत-ए-गुल होगा रवाना
माइल-ए-गिर्या मैं याँ तक हूँ कि आज़ा पे मिरे
बज़्म-ए-सुरूद-ए-ख़ूबाँ में गो मर्दनगीं शाहीन बजीं
ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का