शहवत उन से कौन सी सादिर हुई जो 'मुसहफ़ी'
बंध रही है आज तक अंगूर के ख़ानों से ताँत
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तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े
ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हम ने सुनी है 'मीर' ओ 'मिर्ज़ा' की
क्या जाने क्या करेगा ये दीदार देखना
माह की आँख जो रहती है लगी ऊधर ही
मैं तरह डालूँ अगर सोच कर कहीं घर की
शैख़ मग़रूर है इस्लाम पे क्या साथ अपने
ऐ काश कोई शम्अ के ले जा के मुझे पास
हर-चंद कि हो मरीज़-ए-मोहतात
जंगल में टेसू फूला और बाग़ में शगूफ़ा
तुम बाँकपन ये अपना दिखाते हो हम को क्या
'मुसहफ़ी' होता मुसलमान जो मुझ सा काफ़िर
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा