शहर में मुझ से भड़कता था तसव्वुर तेरा
उस की तस्ख़ीर को मैं साकिन-ए-वीराना हुआ
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हर रोज़ हमें घर से सहरा को निकल जाना
शब शौक़ ले गया था हमें उस के घर तलक
जंगल में टेसू फूला और बाग़ में शगूफ़ा
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
तुम्हारे हाथ को छोड़ूँ हूँ मैं कोई साहिब
शब हम को जो उस की धुन रही है
बज़्म-ए-सुरूद-ए-ख़ूबाँ में गो मर्दनगीं शाहीन बजीं
बस बहुत ज़ब्त-ए-ग़म-ए-इश्क़ किया
किसी के अक़्द में रहती नहीं है लूली दहर
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
अश्क से मेरे बचे हम-साया क्यूँ-कर घर समेत
तो माइल-ए-उश्शाक़-कुशी है तो यहाँ भी