शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र
झपकी नहीं आँख 'मुसहफ़ी' की
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दिल्ली पे रोना आता है करता हूँ जब निगाह
काँटा हुआ हूँ सूख के याँ तक कि अब सुनार
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है
तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े
उट्ठा गया फ़लक पे गिरा ख़ाक में मिला
है यहाँ किस को दिमाग़ अंजुमन-आराई का
दिल में है उस के मुद्दई का इश्क़
आसाँ नहीं दरिया-ए-मोहब्बत से गुज़रना
आस्तीं उस ने जो कुहनी तक चढ़ाई वक़्त-ए-सुब्ह
ले चली है जो दिल तो ज़ुल्फ़-ए-दराज़
एक नाले पे है मआश अपनी
ख़ूब-रूयों की मोहब्बत से करें क्यूँ तौबा