शब-ए-विसाल कब आती है मेरे घर ऐ चर्ख़
कि उस के पीछे से दौड़ी सहर नहीं आती
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दिल और सियह हो गए माह-ए-रमज़ाँ में
किसी के हाथ तो लगता नहीं है इक अय्यार
तीखे तो हो प सच कहो उस वक़्त क्या करो
हम-सफ़ीरों से सबा कहियो कि तुम में भी कभी
आँखें न चुरा 'मुसहफ़ी'-ए-रेख़्ता-गो से
अव्वल-ए-उम्र में देखा उसे जिस ने ये कहा
क्या जानिए चमन में क्या ताज़ा गुल खिला हो
झुर्रियाँ क्यूँ न पड़ें उम्र-ए-फ़ुज़ूँ में मुँह पर
गह तीर मारता है गह संग फेंकता है
सीना है पुर्ज़े पुर्ज़े जा-ए-रफ़ू नहीं याँ
सुल्ह-ए-कुल में मिरी गुज़रे है मोहब्बत के बीच
कहूँ तो किस से कहूँ अपना दर्द-ए-दिल मैं ग़रीब